नव वर्ष २०१० दे रहा दस्तक आपके द्वार
नई चेतना ,नई उमंग से स्वागत करें
नई भोर का आज ,खोलें बंद खिडकी दरवाजे
आने दे नई बयार घर में फिर आज
Wednesday, December 30, 2009
Friday, October 30, 2009
प्रेम के अंतरंग क्षणों में भी
उसके दिमाग में पक रही होती है सुबह के लिये दाल
अदृश्य हाथ काट रहे होते हैं सब्जी
घर से निकलते वक्त उसके साथ होता है एक सलीका
करीने से पहनी होती है साडी ,ढंग से बँधे होते हैं बाल
साथ ही होठों पर चिपकी होती है ढाई इंची मुस्कान
कोई भी नहीं जान पाता इस मुस्कान के पीछे छिपा है
एक थका हुआ तन और मन
उसके दिमाग में पक रही होती है सुबह के लिये दाल
अदृश्य हाथ काट रहे होते हैं सब्जी
घर से निकलते वक्त उसके साथ होता है एक सलीका
करीने से पहनी होती है साडी ,ढंग से बँधे होते हैं बाल
साथ ही होठों पर चिपकी होती है ढाई इंची मुस्कान
कोई भी नहीं जान पाता इस मुस्कान के पीछे छिपा है
एक थका हुआ तन और मन
Tuesday, October 27, 2009
छोटे बच्चे
माँ के कोप-भाजन का शिकार
अक्सर होते हैं छोटे छोटे बच्चे
घर में रिश्तों में हुआ हो विवाद
या पति-पत्नि के बीच कटु संवाद
खामियाजा भुगतते हैं छोटे-छोटे बच्चे
माँ उन्हैं पीटकर निकाल लेती है अपना गुबार
वे नहीं समझ पाते, उनकी छोटी सी गलती की सजा
कभी-कभी इतनी बडी क्यों हो जाती है ?
कुछ देर सिसकते हैं फिर भूल जाते हैं
बेवजह खाई थी मार
नन्हे हाथों से पौंछते हैं माँ की आँखों के आँसू
ऊटपटाँग हरकत करके माँ को हँसाने का करते हैं असफल प्रयास
कभी-कभी रोते-रोते जब वे सो जाते हैं
गालों पर उभरी आँसुओं की लकीरें
उनके निष्पाप चेहरे को देवतुल्य बना देती है
माँ देखती है ,फिर करती है पश्चाताप
उन्हैं गोद में लेकर बेतहाशा चूमती है
सीने से लगाकर भूल जाती है सारा संताप
मासूम चेहरे को निहारकर
आँसू हैं कि छलक उठते हैं बार-बार
माँ के कोप-भाजन का शिकार
अक्सर होते हैं छोटे छोटे बच्चे
घर में रिश्तों में हुआ हो विवाद
या पति-पत्नि के बीच कटु संवाद
खामियाजा भुगतते हैं छोटे-छोटे बच्चे
माँ उन्हैं पीटकर निकाल लेती है अपना गुबार
वे नहीं समझ पाते, उनकी छोटी सी गलती की सजा
कभी-कभी इतनी बडी क्यों हो जाती है ?
कुछ देर सिसकते हैं फिर भूल जाते हैं
बेवजह खाई थी मार
नन्हे हाथों से पौंछते हैं माँ की आँखों के आँसू
ऊटपटाँग हरकत करके माँ को हँसाने का करते हैं असफल प्रयास
कभी-कभी रोते-रोते जब वे सो जाते हैं
गालों पर उभरी आँसुओं की लकीरें
उनके निष्पाप चेहरे को देवतुल्य बना देती है
माँ देखती है ,फिर करती है पश्चाताप
उन्हैं गोद में लेकर बेतहाशा चूमती है
सीने से लगाकर भूल जाती है सारा संताप
मासूम चेहरे को निहारकर
आँसू हैं कि छलक उठते हैं बार-बार
Thursday, October 22, 2009
Thursday, October 1, 2009
आसमान
घर के कमरे सेअगर दिखता रहे
थोडा साआसमान ,तो छोटा सा कमरा भी
बहुत बडा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार और थके-हारे लोग
आसानी से समा जायें,पर जब कमरा भी छोटा हो
दिखे भी न कहीं से आसमान
तब कहाँ जायें ऐसे में ,कहीं भी तो नहीं दिखती
कोई और जगह ?
Thursday, August 6, 2009
Saturday, August 1, 2009
Sunday, June 14, 2009
कंचनजंघा
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ
कविता
कंचनजंघा
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ
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