Sunday, June 14, 2009

कंचनजंघा
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ

कविता

कंचनजंघा
सर्पिल की तरह लहराती
बलखाती इठलाती बह रही है तिस्ता नदी
हमारे विचारों को उद्धेलित करती
निकलती है पर्वतराज हिमालय से
कहीं बह रही है अपने उद्धाम वेग से
कहीं शांत मंथर गति से
हरितमा से आच्छादित सघन वन
सूर्य की किरण भी जहाँ डरती है पहुँचने से
बीच में सेउनके गुजरते हैं वाहन
सर्पाकार सी बलखाती सडकों पर
वहाँ से हिमआच्छादित कंचनजंघा की चोटियों को देखना
कभी द्र्श्य कभी अद्रश्य कितना करता है रोमांचित
क्या यही है स्वर्ग कितना अलौकिक सुख
जीवन की आपा-धापी से निकल पडे हैं
कुछ पल को ही सही जब लौटेंगे वापस
ह्लदय में सँजोये न जाने कितनी अदभुत स्मतियाँ